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इस्लामी रोज़े और उसकी बरकतें (Islami Roze Or Uski Barakaten)

इस्लामी रोज़े और उसकी बरकतें (Islami Roze Or Uski Barakaten)

रोज़ा एक ऐसी इबादत हैं जो हर ज़माने व मज़हब में एक अहम इबादत हैं। रोज़ा रखने से रूहानी और जिस्मानी हर तरह के फायदे हासिल होते हैं। रोज़े का मतलब नफ़्स को गुनाहों से पाक करना हैं। रोज़ा रखने से दिल रोशन होता हैं। जिसकी वजह से इबादत का शौक पैदा होता हैं। अल्लाह के रसूल फरमाते हैं ! रोज़ा एक इबादत हैं। रोज़े से बन्दा गुनाहो से बचता हैं रोज़े की हालत में बन्दा अल्लाह के ज़्यादा करीब रहता हैं। रोज़ेदार बन्दों को अल्लाह बहुत पसंद करता हैं।

हदीस शरीफ में आया हैं रोज़ा जहन्नम से बचाता हैं। रोज़ा इबादतों का दरवाज़ा भी कहा जाता हैं। इसलिए बिना किसी शरई मज़बूरी के इसे नहीं छोड़ना चाहिए। रोज़े की बदौलत इंसान की ज़िन्दगी में एक इंक़लाब आता हैं। रोज़ा एक ऐसी बेमिसाल इबादत हैं जिससे अमीर गरीब का फ़र्क ख़तम हो जाता हैं। रोज़े की हालत में सभी बराबर रहते हैं। पूरी दुनिया में ऐसा कोई इलाका नहीं जहाँ रोज़े न रखे जाते हो। 

रोज़े तो हज़रत आदम अलैहिसल्लाम के ज़माने से आज तक जारी हैं। क़ुरान शरीफ में कई जगह रोज़े का बयान आया हैं। हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के ज़माने में हर महीने 3 रोज़े रखने का हुक्म था। हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम हर एक दिन छोड़कर रोज़ा रखते थे। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम जब रब से मुलाकात के लिए तशरीफ़ ले गए तो रोज़े में नहीं थे। रब ने फ़रमाया ! अगर मुझ से मुलाकात करना चाहते हो तो अभी जाओ और 10 रोज़ा और रखकर रोज़े की हालत में ही आना। क्यूंकि रोज़ेदार के मुँह की महक मुझे बहुत पसंद हैं।

रमजान का रोज़ा फ़र्ज़ होने से पहले हमारे रसूल सिर्फ आशूरा 10 वीं मुहर्रम का रोज़ा रखते थे। उस ज़माने में ईशा की नमाज़ के बाद ही खाना पीना वगैरह छोड़ दिया जाता था। लेकिन ये परहेज़ बड़ा मुश्किल था। इसलिए हमारे मेहरबान रब ने हम पर मेहरबानी फरमाते हुए फ़रमाया ! इफ्तार के बाद से फज्र का वक़्त होने से पहले तक तुम खा पी सकते हो।

रमज़ान के रोज़े सन 2 हिजरी में फ़र्ज़ हुए। इस से पहले वाले सारे रोज़े नफ़्ल करार दे दिए गए। रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ होने से पहले आशूरा का रोज़ा,13, 14,15 तारीख का रोज़ा, सोमवार और जुमेरात का रोज़ा और दूसरे और रोज़े नफ़्ल रोज़े की तरह रखे जाते थे। कोई भी रोज़ा फ़र्ज़ नहीं था। जैसा की आज के ज़माने में रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ हैं। इस्लाम से पहले यहूदी लोग भी आशूरा के दिन रोज़ा रखा करते थे। क्यूंकि हज़रत मूसा ने उसी दिन फ़िरऔन के हाथ से निजात पायी थी। इस वजह से यहूदी शुक्राने में यह रोज़ा रखते थे। रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ होने के बाद यह रोज़े मुस्तहब ही रह गए। यानि जिसका जी चाहा उसने रखा जिसका जी चाहा उसने न रखा। रमज़ान का रोज़ा जब फ़र्ज़ हुआ तब सेहरी का भी हुक्म दिया गया और रात में खाने पीने और बीवी के साथ सोहबत करने की भी इजाज़त दी गयी।

रमज़ान के अलावा सहाबा को रोज़ की बरकतें हासिल करने की बड़ी तमन्ना रहा करती। यही वजह हैं की कुछ सहाबा अपने नफ़्स की इस्लाह के लिए लगातार रोज़े रखने लगे और कई कई दिनों तक कुछ खाते पीते न थे। अल्लाह के रसूल को जब उनकी हालत के बारे में जानकारी हुई तो आपने इन्हें ऐसा करने से सख्ती से मना कर दिया। क्यूंकि लगातार रोज़ा रखने की वजह से बदन में ज़्यादा कमज़ोरी आ जाती हैं। जिसकी वजह से आदमी अपने और अपने घर वालो के गुज़ारे के लिए मेहनत मज़दूरी नहीं कर सकता। 

अल्लाह के रसूल रमज़ान के अलावा हर महीने में पीर और जुमेरात को रोज़ा रखा करते थे। इसके बारे में रसूल फ़रमाया करते ! इन्हीं दिनों में बन्दों के आमाल अल्लाह के दरबार में पेश किये जाते हैं। इसलिए मैं चाहता हूँ की रोज़े की हालत में पेश हो ताकि रब राज़ी हो जाये।

इसके अलावा आप मुहर्रम में पहली से दसवीं तारीख तक और ईद में 2 से 7 तारीख तक रोज़ा रखा करते थे। बहरहाल रोज़ा एक बहुत बड़ी इबादत और नेमत हैं। रोज़ा आपको गुनाहो से बचाता हैं। आपके पिछले गुनाहो को माफ़ फरमाता हैं। इसलिए रमज़ान में पुरे एक महीने के रोज़े फ़र्ज़ किये गए, ताकि खुदा के नेक बन्दे इसकी बरकत से सवाब पा सके और नमाज़ो के परहेज़गार बन सके।

अल्लाह तआला से यही दुआ हैं की हम सब को रमज़ान के महीने के पुरे रोज़े रखने और उसकी बरकतें हासिल करने की तौफीक अता फरमाए आमीन।

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